सारा आलम नींद में लगा इस कदर
जब ऊँचाई से देखा
शहर मैंने
जाना कि नहीं उतना बड़ा समझता था जितना पहले
बाजार अभी पूरी तरह जागा नहीं था
लोग बच्चों की तरह दीखते, गाड़ियाँ खिलौनों-सी
वे एक-दूसरे को पछियाती भागती रहतीं
उन्हें देख मैं अब तक न समझ पाया
कि वे इतनी जल्दी जाती कहाँ हैं
जाने क्यूँ होता यह भ्रम-सा
कि इन सबका रिमोट है मेरे हाथों में
बटन दबाने का उपक्रम करता मैं
और हँस पड़ता जोरों से स्वतः
मैं गहरी नींद में था या ऊँचाई पर
कि जाना जैसे सूरज पर नशा तारी है
वह मेरा दोस्त था, मैं भी यारबाज पक्का
कि जिस ऊँचाई पर था, यार हो ही जाना था
खुश था कि जहर पचाना सीख गया था मैं
ओजोन की परत नहीं थी मेरी देह पर
मैं जब भी नशे में होता उसके साथ तो शेर कहता
सूरज में लगे धब्बा फितरत के करिश्मे हैं
बुत हमको कहे काफिर अल्लाह की मर्ज़ी है'
तब वह भी झूमता और ग़ुलाम अली हो जाता
'हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है'
चाँद से भी दोस्ताना रहा कि वह भी ऊँचाई पर था|
शिकायत थी तो बस ये कि वह बहुत शीतल था
मैं अक्सर कहता कि इतना ठंडापन अच्छा नहीं
और उसे जाम पेश करता
नजाकत भरी न से वह मुस्करा देता
हालांकि रूप बदलने की कला थी उसमें
बावजूद इसके कलाबाज न हुआ वह|
अलबत्ता पृथ्वी का पानी अपनी ओर खींच लेता था गाहे-बगाह
और मैं सोचता, काश सिखाता वह मुझे ऐसी कलाएँ
इस ऊँचाई पर खुद को अभिव्यक्त करने के खतरे थे
घातक और भी जब नींद में था समय
जिसकी गणना करता मैं खुद को भूल रहा था
मानो इमारतों की गणना में जीवन बिसारता
मैं तीव्रगामी हुआ कि समयातीत होने की प्रक्रिया में आ चला
स्वयं को परिभाषित करने का यक्षप्रश्न था मेरे समक्ष
मैं नीचे के आदमी को देख नहीं पा रहा था नींद में
और नीचे का आदमी जब-जब मुझे देखता
उसकी टोपी गिर-गिर जाती थी।